Thursday, August 16, 2007

आसान नहीं है राह जेण्‍डर समानता की

‘’ये हुई ना मर्दों वाली बात’’ वाली डॉक्‍यूमेंटरी दिखाने के बाद अक्‍सर ये सवाल उठता है कि ल‍ड्कियों के लिए किस तरह का पुरूष ‘आईडियल’ है। तो अक्‍सर ये ही सुनने को मिलता है। हमें तो हटटा-कटटा, दमदार, सुडौल, अच्‍छा खासा कमाने वाला लडका ही चाहिए। इस तरह के विचार सुनने को आते हैं, लड्कियों से। मेरा यह अनुभव विश्‍ववि़द्यालय में फिल्‍म स्‍क्रीनिंग करते हुआ है।
मैसवा के साथी पुरूष व लडके जो काफी लम्‍बे समय से मैसवा की गतिविधियों में शामिल हैं कि प्रतिक्रिया अक्‍सर होती है है कि रवि भाई हमारे लिए तो कोई जगह ही नहीं है। लड्कियां जो सोचती है, उस खांचे में हम तो फिट होते ही नहीं हैं। लड्के कहते हैं कि अब हम जेण्‍डर समानता की बात करते हैं और आसपास व घरों में भी सभी तरह के कामों में मदद करते हैं जिसकी वजह से बाकि लडकों के मजाक के पात्र बनाते हैं, और कई बार तो लड्कियों के भी मजाक के पात्र बनते हैं। बडी उहापोह की स्थिति रहती है।

मैं यहां पर समझने व लिखने की कोशिश कर रहा हूं कि आखिर ऐसा क्‍यों होता है कि एक तरु तो हम जेण्‍डर संवदेनशील पुरूष चाहते हैं, लेकिन उसे अपने जीवन के साथ नहीं जोड पाते। असल जिन्‍दगी में हमें उसी तरह मर्दवादी लड्का या पुरूष चाहिए होता है। यही भाव लड्कों में भी है, दोस्‍ती के दायरे में हमें हंसी मजाक करने वाली, बोल्‍ड लडकी ही चाहिए होती है, लेकिन असल जिन्‍दगी में हम फिर सामाजिक ढाचे में फिट लड्की ही चाहते हैं। लड्कों व लड्कियों का सा‍माजिकरण समाजि की अपेक्षाओं के आधार पर एक तरह के ढांचे में हुआ है। जिसमें लडकों के लिए कुछ अलग मानक हैं, उन्‍हें अलग तरह के दिखने का है, ठीक लड़कियों के लिए भी अलग मानक है, जिसमें उन्‍हें अलग तरह का दिखना है। ये मानक ही आदर्श हैं, इस तरह का भाव बचपन से ही हमारे अंदर डाल दिया जाता हैं। अगर इस से इतर कुछ भी हुआ तो समाज को बहुत अजीब लगता है और अक्‍सर उसका कई स्‍वरूपों में विरोध भी होता है। जिसकी वजह से हर किसी को समाज द्वारा तय किये गये मानकों पर ही चलना ज्‍यादा सुगम लगता है। समाज इस तरह की सोच भी पैदा कर देता है कि इन मानकों पर खरा उतरना जरूरी है वरना आपको असामान्‍य घोषित कर दिया जायेगा। आपको समाज में इस्‍तेमाल होने वाले तुच्‍छ व नीचा दिखाने वाले शब्‍दों से संबोधित किया जायेगा। ये इसलिए किया जाता है कि आप उस बदलाव में बहुत आगे न जा पाये और पुन समाज द्वारा तय मूल्‍यों पर लौट आयें, दूसरी वजह है कि दूसरे व्‍यक्ति इससे सबक लें और समाज के मूल्‍यों को ठुकराने व चुनौती देने की कोशिश न करें।
मुझे लगता है कि ऐसी स्थिति में हम दो पक्षों में बंटे रहते हैं, एक मन व दूसरा दिमाग। मन कुछ और कहता है तो दिमाग कुछ और कहता है। इस मन और दिमाग के बीच में अंतद्धंद चलता रहता है। दिमाग इसलिए हाबी रहता है क्‍योंकि वह सामाजिक न‍जरिये से सोचता है। हम सब दिमागी रूप से परम्‍परागत सोच की गुलामी को जी रहे होते हैं व संकीर्ण विचारधाराओं में जकडे हुए हैं।
यहां पर लड्कों की मानसिक स्थिति को समझने की जरूरत है क्‍यों वह इस तरह की बात कर रहा है। उसे र्स्‍पोटिंग स्स्टिम नहीं मिल रहा है। उसके मन में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं, उनमें से एक है – आसान नहीं है राह जेण्‍डर समानता की।
साथियों इन उलझनों पर आपके जवाब आमंत्रित हैं।



2 comments:

उन्मुक्त said...

हिन्दी चिट्ठाजगत में स्वागत है।

Jaago Re Campaign said...

धन्‍यवाद उन्‍मुक्‍त
विचारों का आदान प्रदान बहुत जरूरी है।