Monday, October 8, 2007

यह डर पुरूष का है या उसके पुरूषत्व का

  • घरेलू हिंसा से महिलाओं का बचाव कानून 2005

    घरेलू हिंसा कानून 2005 के लगभग एक साल के सफर में इस कानून को पुरूषों के खिलाफ़, घरफोडू व भारतीय संस्कृति के खिलाफ़ आदि तरीके से स्थापित करने की कोषिषे पूरजोर तरीके से की जा रही हैं। आम समाज को इस कानून के दुरूप्रयोग का खौफ दिखाया जा रहा है। 26 अगस्त 2007 को दिल्ली में ''पुरूष बचाओ'' एक बड़ी रैली आयोजित हुई, जिसे मीडिया ने जबरदस्त तरीके से हाईलाईट किया, उसे रैली में इस कानून के विरोध में स्वर साफ सुनायी दे रहे थे।
    मेरे जेहन में सवाल उठ रहा है कि आखिर क्यों समाज विषेषकर पुरूष इससे डरा हुआ है, क्यों इसका विरोध है? दबे पांव राजनैतिक लोग, मीडिया व समाज के प्रबुध्द वर्ग भी अपनी आपत्ति दर्ज कर रहे हैं।
    इस कानून की जितनी चर्चा इसके सकारात्मक पहलू और इसकी सार्थकता पर हो रही है, उससे कहीं ज्यादा इस कानून के विरोध में और इसकी निरर्थकता को लेकर चर्चाएं हो रही हैं। तरह-तरह की बातें इस कानून के लिए बारे में कहीं जा रही है, इसके औचित्य पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं।
    मैं यहां पर महिला व बाल विकास केन्द्रिय मंत्री रेणुका चौधरी के उस कथन का हवाला देना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने कहा कि ''इस कानून से पुरूषों में डर पैदा हुआ है तो मान लीजिए कानून सफल हो गया।''
    मेरे हिसाब से इस कथन का समाजषास्त्रीय विष्लेषण यह कहता है कि कानून पितृसत्तात्मक रूपी पूरे ढ़ाचे पर वार करता है, इस ढ़ाचे में जहां अभी तक पुरूष अपने पुरूष होने तथा महिला का महिला होने के नाते उस पर अपनी रोब जमा रहा था, उसे चोट पहुंच रही है, इस कानून से पुरूष के पौरूषत्व पर चोट पहुंच रही है। यह पुरूष को नुकसान नहीं अपितु पुरूष के पौरूषत्व पर हमला कर रहा है। जिससे पुरूष डरे हैं कि कहीं उन्हें पितृसत्ता के रूप में जो सत्ता मिली है, वह चली न जाये। यहां पर इसके स्वर इसलिए तीव्र और ज्यादा है क्योंकि यह कानून पितृसत्तात्मक ढ़ाचें पर वार कर रहा है। पुरूष अपने तथाकथित अधिकारों पर वैधानिक रोक लगाने से डर रहे हैं।

    मैं यहां पर इस कानून को लेकर उठे सवालों का विष्लेषण करने की कोषिष कर रहा हूं,। जिसमें पहला सवाल यह कानून घरफोडू है - तो क्या घर को बनाये रखने की जिम्मेदारी केवल महिला की है? क्या घर में शांति बनाये रखने के लिए उसे अपने उपर हो रहे सारे जुर्म को बिना आह किये चुप रहना चाहिए? वह महिला, जो जिन्दगी भर कई छोटे बड़े अवसरों पर महिला होने के नाते उपेक्षित व प्रताड़ित होती है, और उसके बावजूद पारिवारिक इज्जत को ढोती है, क्या ऐसी महिला को प्रताड़ना के विरूध्द स्वर उठाने का अधिकार भी नहीं?

    दूसरा सवाल यह कानून पुरूषों के खिलाफ़ है -यह कानून पुरूषों के खिलाफ़ नहीं है, ये कानून हिंसा के खिलाफ़ है। ये कानून सिविल कानून है, अगर घरेलू हिंसा की षिकायत की जाती है, तो उसमें पहले पुरूष को चेताया जायेगा और महिला को सुरक्षा मुहैया करायी जायेगी। पुरूष के खिलाफ़ तभी दण्डात्मक कार्यवाही होगी जब वह न्यायालय के आदेष की अवहेलना करता है। जो अभी तक कानून को पुरूष के खिलाफ़ होने की बात कही जा रही थी, असल में यह पुरूष के पौरूषत्व या कहें उसके पुरूष होने के ''अहम'' पर अंकुष लगाती है, जिसमें अब वह महिला को भोग या चीज न समझ कर महिला को एक मानव होने का अहसास दिलाती है।

    तीसरा सवाल इस कानून का दुरूप्रयोग होगा - दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके दो पहलू न हो। जिन्दगी में खुषी है तो गम भी है। इसी तरह हर कानून के साथ है, लेकिन उस काननू को इस आधार पर नकारा नहीं जा सकता है कि इसका गलत इस्तेमाल होगा। इसकी जरूरत, इसकी महत्ता और इस कानून से लाभान्वित होने वाले समाज या वर्ग को देखना पड़ेगा। यह भी अक्सर कहा जाता है कि जेलों में दोषियों से ज्यादा निर्दोष लोग बंद पड़े हैं। इसका यह मतलब नहीं कि सारे कानून को नकार दिया जाये। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी कानून का गलत या सही इस्तेमाल हम सभी लोग करते है,

    एक मैसवा का सदस्य होने के नाते मेरा इस विषय पर लिखना व अपना पक्ष रखना और भी ज्यादा जरूरी बन जाता है। मैसवा इस कानून के पक्ष में है, इस कानून का स्वागत करता है, और जितना संभव हो पायेगा इस कानून को प्रचारित व प्रसारित करने की जिम्मेदारी लेता है। मेरा सभी पुरूषों से विनम्र अनुरोध है कि इस कानून की आवष्यकता व इसके सकारात्मक पहलुओं पर गौर कीजिए और हम पुरूषों को अपना आत्मविष्लेषण करना चाहिए कि हम पुरूषों के व्यवहार व सोच की वजह से आज यह कानून बनाने की जरूरत पड़ी।

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